भावेषु नित्येषु विकारहाने:
न कारकव्यापृति-कार्य-युक्ति: ।
न बन्धभोगौ न च तद्विमोक्ष:
समन्तदोषं मतमन्यदीयम् ॥8॥
अन्वयार्थ : [नित्येषु भावेषु] पदार्थों को नित्य मानने पर उनमें [विकारहाने:] विकार की हानि होती है, [न कारक-व्यापृत-कार्ययुक्ति:] कारकों के व्यापार नहीं बनता, कारक-व्यापार के अभाव में कार्य नहीं बनता और कार्य के अभाव में युक्ति घटित नहीं हो सकती। [बन्धभोगौ न] बन्ध तथा भोग दोनों नहीं बन सकते हैं [तद्विमोक्ष: न च्व] और न उनका विमोक्ष ही बन सकता है । अत: [अन्यदीयं मतं] आपके मत से भिन्न अन्यों का मत [ समन्तदोषं] सब प्रकार से दोषरूप है ।
वर्णी
वर्णी :
भावेषु नित्येषु विकारहाने:
न कारकव्यापृति-कार्य-युक्ति: ।
न बन्धभोगौ न च तद्विमोक्ष:
समन्तदोषं मतमन्यदीयम् ॥8॥
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