+ अन्य एकांत मतों में बंध, मोक्ष आदि घटित नहीं होते हैं -- -
भावेषु नित्येषु विकारहाने:
न कारकव्यापृति-कार्य-युक्ति: ।
न बन्धभोगौ न च तद्विमोक्ष:
समन्तदोषं मतमन्यदीयम्‌ ॥8॥
अन्वयार्थ : [नित्येषु भावेषु] (सत्तात्मक) पदार्थों को नित्य मानने पर उनमें [विकारहाने:] विकार की हानि होती है, [न कारक-व्यापृत-कार्ययुक्ति:] (विकार की हानि होने से) कारकों के व्यापार नहीं बनता, कारक-व्यापार के अभाव में कार्य नहीं बनता और कार्य के अभाव में युक्ति घटित नहीं हो सकती। [बन्धभोगौ न] (युक्ति के अभाव में) बन्ध तथा भोग दोनों नहीं बन सकते हैं [तद्विमोक्ष: न च्व] और न उनका विमोक्ष ही बन सकता है । अत: (हे वीर जिन!) [अन्यदीयं मतं] आपके मत से भिन्‍न अन्यों का मत (शासन) [ समन्‍तदोषं] सब प्रकार से दोषरूप है ।

  वर्णी 

वर्णी :

भावेषु नित्येषु विकारहाने:

न कारकव्यापृति-कार्य-युक्ति: ।

न बन्धभोगौ न च तद्विमोक्ष:

समन्तदोषं मतमन्यदीयम्‌ ॥8॥