+ अवक्तव्य एकान्त में दोष -
येषामवक्तव्यमिहात्मतत्त्व
देहादनन्यत्वपृथसम्यक्त्वकक्लृप्ते: ।
तेषां ज्ञतत्त्वेऽनवधार्यतत्त्वे
का बंधमोक्षस्थितिरप्रमेये ॥10॥
अन्वयार्थ : [इह] इस लोक में [आत्मतत्त्वं] आत्मतत्त्व (नित्य आत्मा) की [देहात्] शरीर से [अनन्यत्व-पृथक्त्वक्लृप्तेः] अभिन्नत्व और भिन्नत्व की इस कल्पना (अभिन्नत्व और भिन्नत्व दोनों में से किसी एक के भी निर्दोष सिद्ध न हो सकने) के कारण [येषाम्] जिन्होंने (आत्मतत्त्व को) [अवक्तव्यम्] अवक्तव्य (वचन के अगोचर अथवा अनिर्वचनीय) माना है, [तेषाम्] उनके मत में [ज्ञतत्त्वे] आत्मतत्त्व के [अनवधर्य-तत्त्वे] स्वरूप अवधरित नहीं होने पर [अप्रमेये] प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण का विषय नहीं होने पर [का बंध्-मोक्ष-स्थितिः] बन्ध और मोक्ष की कौन सी स्थिति बन सकती है ?

  वर्णी 

वर्णी :

येषामवक्तव्यमिहात्मतत्त्व

देहादनन्यत्वपृथसम्यक्त्वकक्लृप्ते: ।

तेषां ज्ञतत्त्वेऽनवधार्यतत्त्वे

का बंधमोक्षस्थितिरप्रमेये ॥10॥