+ क्षणिकैकान्त पक्ष में दोष -
हेतुर्न दृष्टोऽत्र न चाऽप्यदृष्टो
योऽयं प्रवाद: क्षणिकात्मवाद: ।
न ध्वस्तमन्यत्र भवे द्वितीये
संतानभिंने न हि वासनाऽस्ति ॥11॥
अन्वयार्थ : 'प्रथम क्षण में [ध्वस्तम्] नष्ट हुआ चित्त-आत्मा [अन्यत्र] किसी भी तरह [द्वितीये भवे] दूसरे भव (क्षण) में [न] विद्यमान नहीं रहता', [योऽयं] यह जो [क्षणिकाऽऽत्मवादः] क्षणिकात्मवाद है, वह [प्रवादः] प्रलाप-मात्र है, क्योंकि [अत्र] यहाँ [न दृष्टः] न प्रत्यक्ष [न च अपि अदृष्टः] और न अनुमान [हेतुः] हेतु बनता है । (चित्त में) [सन्तानभिन्ने] सन्तान-भिन्नता में [न हि वासना अस्ति] वासना का अस्तित्व नहीं बन सकता ।

  वर्णी 

वर्णी :

हेतुर्न दृष्टोऽत्र न चाऽप्यदृष्टो

योऽयं प्रवाद: क्षणिकात्मवाद: ।

न ध्वस्तमन्यत्र भवे द्वितीये

संतानभिंने न हि वासनाऽस्ति ॥11॥