न बंध-मोक्षौ क्षणिकैक-सस्थौ
न संवृति: साऽपि मृषा-स्वभावा ।
मुख्यादृते गौण-विधिर्न दृष्टो
विभ्रांत-दृष्टिस्तव दृष्टितोऽन्या ॥15॥
अन्वयार्थ : [क्षणिकैकसंस्थौ] क्षणिक एक में संस्थित के [बन्धमोक्षौ न] बन्ध और मोक्ष भी नहीं बनते [मृषास्वभावा] मिथ्या-स्वभावी [न संवृतिः साऽपि] उपचार भी क्षणिक एक-चित्त में बंध्-मोक्ष की व्यवस्था करने में समर्थ नहीं है। और [गौण विधिः] गौण-विधि [मुख्यादृते] मुख्य के बिना [न दृष्टः] देखी नहीं जाती है । [तव] आपकी [दृष्टितः] दृष्टि से [अन्या] भिन्न [विभ्रान्तदृष्टिः] वह मिथ्या दृष्टि है ।
वर्णी
वर्णी :
न बंध-मोक्षौ क्षणिकैक-सस्थौ
न संवृति: साऽपि मृषा-स्वभावा ।
मुख्यादृते गौण-विधिर्न दृष्टो
विभ्रांत-दृष्टिस्तव दृष्टितोऽन्या ॥15॥
|