+ क्षणिकैकान्त से लोक-व्यवहार का लोप -
प्रतिक्षणं भङ्गिषु तत्पृथक्त्वा-
न्न मातृघाती स्व-पति: स्व-जाया ।
दत्त-ग्रहो नाऽधिगत-स्मृतिर्न न
क्त्वार्थ-सत्यं न कुलं न जाति: ॥16॥
अन्वयार्थ : [प्रतिक्षणं भंगिषु] क्षण-क्षण में पदार्थों को विनाशवान मानने पर, [तत्पृथक्त्वात्] उनके सर्वथा भिन्न होने के कारण, [न मातृघाती] कोई मातृघाती (माता का घातक) नहीं बनता है, [न स्वपतिः] न कोई किसी का (कुलस्त्री का) स्वपति बनता है, [न स्वजाया] और न कोई किसी की स्वपत्नि ठहरती है । [दत्तग्रहो न] दिये हुए धनादिक का पुनः ग्रहण नहीं बनता, [अधिगतस्मृतिः न] अधिगत (ग्रहण) किये हुए अर्थ की स्मृति भी नहीं बनती । [क्त्वार्थसत्यं न] सत्य है वह भी नहीं बनता। (इसी प्रकार) [कुलम् न] न कोई कुल बनता है, [जातिः न] और न कोई जाति ही बनती है ।

  वर्णी 

वर्णी :

प्रतिक्षणं भङ्गिषु तत्पृथक्त्वा-

न्न मातृघाती स्व-पति: स्व-जाया ।

दत्त-ग्रहो नाऽधिगत-स्मृतिर्न न

क्त्वार्थ-सत्यं न कुलं न जाति: ॥16॥