+ विज्ञानाद्वैत में स्वसंवेदन भाव नहीं बनता -
तत्त्वं विशुद्धं सकलैर्विकल्पै-
र्विश्वाऽभिलाखापाऽऽस्पदतामतीतम् ।
न स्वस्य वेद्यं न च तन्निगद्यं
सुषुप्त्यवस्थं भवदुक्तिबाह्यम् ॥19॥
अन्वयार्थ : जो [तत्त्वम्] (विज्ञानाद्वैत) तत्त्व [सकलैः विकल्पैः] सम्पूर्ण विकल्पों से [विशुद्धम्] शून्य है वह [स्वस्य वेद्यं न] स्वसंवेद्य नहीं हो सकता । (इसी तरह) [विश्वा-अभिलापा-आस्पदताम् अतीतम्] सम्पूर्ण कथन प्रकारों की आश्रयता से रहित (वह विज्ञानाद्वैत तत्त्व) [न च तत् निगद्यम्] कथन के योग्य भी नहीं हो सकता । (अतः हे वीर जिन!) [भवद्-उक्ति-बाह्यम्] आपकी उक्ति (अनेकान्तात्मक स्याद्वाद) से जो बाह्य (सर्वथा एकान्तरूप विज्ञानाद्वैत तत्त्व) [सुषुप्त्यवस्थम्] प्रगाढ़ निद्रा (महा मोह) की अवस्था को प्राप्त है ।

  वर्णी 

वर्णी :

तत्त्वं विशुद्धं सकलैर्विकल्पै-

र्विश्वाऽभिलाखापाऽऽस्पदतामतीतम् ।

न स्वस्य वेद्यं न च तन्निगद्यं

सुषुप्त्यवस्थं भवदुक्तिबाह्यम् ॥19॥