मूकात्म-संवेद्यवदात्मवेद्यं-
तन्म्लिष्ट-भाषा-प्रतिम-प्रलापम् ।
अनङ्ग-संज्ञं तदवेद्यमन्यै:
स्यात्त्वद᳭द्विषां वाच्यमवाच्यतत्त्वम् ॥20॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार [मूकात्म-संवेद्यवत्] मूक व्यक्ति का स्वसंवेदन [आत्मवेद्यम्] आत्मवेद्य है , उसी तरह विज्ञानाद्वैततत्त्व भी आत्मवेद्य है । [तत्] वह स्व-संवेदन [म्लिष्टभाषा-प्रतिम-प्रलापम्] अस्पष्ट भाषा के समान प्रलाप-मात्र है। साथ ही वह [अनङ्ग-संज्ञं] किसी भी अंग-संज्ञा के द्वारा उसका संकेत नहीं किया जा सकता तथा [तत्] वह [अन्यैः अवेद्यम्] दूसरों के द्वारा अवेद्य है। [स्यात् त्वद्-द्विषाम्] ऐसा आपसे - आपके स्याद्वाद मत से - द्वेष रखने वाले लोगों का जो यह कहना है इससे उनका [अवाच्य तत्त्वम्] सर्वथा अवाच्य तत्त्व [वाच्यम्] वाच्य हो जाता है !
वर्णी
वर्णी :
मूकात्म-संवेद्यवदात्मवेद्यं-
तन्म्लिष्ट-भाषा-प्रतिम-प्रलापम् ।
अनङ्ग-संज्ञं तदवेद्यमन्यै:
स्यात्त्वद᳭द्विषां वाच्यमवाच्यतत्त्वम् ॥20॥
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