+ संवेदनाद्वैत में संवृति और परमार्थ दोनों का अभाव -
अशासदञ्जांसि वचांसि शास्ता
शिष्याश्च शिष्टा वचनैर्न ते तै: ।
अहो इदं दुर्गतमं तमोऽन्यत्
त्वयाविना श्रायसमार्य ! किं तत् ॥21॥
अन्वयार्थ : [शास्ता] सुगत (बुद्ध) ने [अञ्जांसि वचांसि] अनवद्य (निर्दोष) वचनों की शिक्षा दी [च तैः वचनैः] और उन वचनों के द्वारा [ते शिष्याः] उनके वे शिष्य [शिष्टा न] शिक्षित नहीं हुए। [अशासत्] (उनका) यह कथन अहो! [इदं तमः अन्यत् दुर्गतमम्] दूसरा दुर्गतम (अलंघनीय) अंधकार है। [आर्य!] हे आर्य! (वीर जिन!) [त्वया विना] आपके बिना [किं तत् श्रायसम्] निःश्रेयस (निर्वाण) कौन सा है?

  वर्णी 

वर्णी :

अशासदञ्जांसि वचांसि शास्ता

शिष्याश्च शिष्टा वचनैर्न ते तै: ।

अहो इदं दुर्गतमं तमोऽन्यत्

त्वयाविना श्रायसमार्य ! किं तत् ॥21॥