+ संवेदनाद्वैत की सिद्धि किसी प्रमाण से संभव नहीं -
प्रत्यक्षबुद्धि: क्रमते न यत्र
तल्लिंग-गम्यं न तदर्थ-लिंगम् ।
वाचो न वा तद्विषयेण योग: का तद्गति: ?
कष्टमशृण्वतां ते ॥22॥
अन्वयार्थ : [यत्र] जिस (संवेदनाद्वैतरूप तत्त्व) में [प्रत्यक्षबुद्धि:] प्रत्यक्ष ज्ञान [न क्रमते] प्रवृत्त नहीं होता, [तत् लिङ्गगम्यं] उसे यदि अनुमान-गम्य माना जाये तो [तदर्थ लिङ्गम् न] उसमें अर्थरूप लिङ्ग सम्भव नहीं हो सकता [वा] और [वाचः] (परार्थानुमानरूप) वचन का [तद्विषयेण योगः न] उसके (संवेदनाद्वैतरूप) विषय के साथ योग नहीं बनता है। [तत् का गतिः] उस (संवेदनाद्वैतरूप तत्त्व) की क्या गति है? अतः (हे वीर जिन!) [ते] आपके (स्याद्वाद शासन को) [अश्रृण्वताम्] नहीं सुनने वालों का (संवेदनाद्वैतरूप) दर्शन [कष्टम्] कष्टरूप है ।

  वर्णी 

वर्णी :

प्रत्यक्षबुद्धि: क्रमते न यत्र

तल्लिंग-गम्यं न तदर्थ-लिंगम् ।

वाचो न वा तद्विषयेण योग: का तद्गति: ?

कष्टमशृण्वतां ते ॥22॥