प्रत्यक्षबुद्धि: क्रमते न यत्र
तल्लिंग-गम्यं न तदर्थ-लिंगम् ।
वाचो न वा तद्विषयेण योग: का तद्गति: ?
कष्टमशृण्वतां ते ॥22॥
अन्वयार्थ : [यत्र] जिस में [प्रत्यक्षबुद्धि:] प्रत्यक्ष ज्ञान [न क्रमते] प्रवृत्त नहीं होता, [तत् लिङ्गगम्यं] उसे यदि अनुमान-गम्य माना जाये तो [तदर्थ लिङ्गम् न] उसमें अर्थरूप लिङ्ग सम्भव नहीं हो सकता [वा] और [वाचः] वचन का [तद्विषयेण योगः न] उसके विषय के साथ योग नहीं बनता है। [तत् का गतिः] उस की क्या गति है? अतः [ते] आपके [अश्रृण्वताम्] नहीं सुनने वालों का दर्शन [कष्टम्] कष्टरूप है ।
वर्णी
वर्णी :
प्रत्यक्षबुद्धि: क्रमते न यत्र
तल्लिंग-गम्यं न तदर्थ-लिंगम् ।
वाचो न वा तद्विषयेण योग: का तद्गति: ?
कष्टमशृण्वतां ते ॥22॥
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