+ संवेदनाद्वैत को उपचार मानने में भी दोष -
रागाद्यविद्याऽनल-दीपनं च
विमोक्ष-विद्याऽमृत-शासनं च ।
न भिद्यते संवृति-वादि-वाक्यं
भवत्प्रतीपं परमार्थ शून्यम् ॥23॥
अन्वयार्थ : (यदि संवृति से संवेदनाद्वैत तत्त्व की प्रतिपत्ति मानकर बौद्ध-दर्शन की कष्टरूपता का निषेध किया जाये तो वह भी ठीक नहीं बैठता क्योंकि) [संवृतिवादि वाक्यम्] संवृतिवादियों का वाक्य [रागाद्यविद्याऽनलदीपनं च] रागादि-अविद्यारूप अग्नि को बढ़ाने वाला (अनल का दीपनरूप) है [विमोक्ष-विद्या-अमृत-शासनं च] और विमोक्ष-विद्या अमृत-शासनरूप (वाक्य) - [न भिद्यते] इन दोनों में कोई भेद नहीं है। (क्योंकि, हे वीर जिन!) [भवत्प्रतीपम्] (ये दोनों वाक्य) आपके अनेकान्त-शासन के विपरीत हैं, [परमार्थशून्यम्] (और इसलिये) परमार्थ-शून्य हैं ।

  वर्णी 

वर्णी :

रागाद्यविद्याऽनल-दीपनं च

विमोक्ष-विद्याऽमृत-शासनं च ।

न भिद्यते संवृति-वादि-वाक्यं

भवत्प्रतीपं परमार्थ शून्यम् ॥23॥