अवाच्यमित्यत्र च वाच्यभावा-
दवाच्यमेवेत्ययथाप्रतिज्ञम् ।
स्वरूपतश्चेत्पररूपवाचि
स्व-रूपवाचीति वचो विरुद्धम् ॥29॥
अन्वयार्थ : [अवाच्यं एव] 'तत्त्व अवाच्य ही है' [इति] ऐसा कहना [अयथा प्रतिज्ञम्] प्रतिज्ञा के विरुद्ध हो जाता है, क्योंकि [अवाच्यं इति अत्रा] 'अवाच्य' इस पद में ही [च वाच्य भावात्] वाच्य का भाव है। [चेत्] यदि कहा जाये कि [स्वरूपतः] ' स्वरूप से अवाच्य ही है' तो [स्वरूपवाचीति] 'सर्व वचन स्वरूपवाची है' यह कथन, और यदि कहा जाये कि ' पररूप से अवाच्य ही है' तो [पररूपवाचि इति] 'सर्व वचन पररूपवाची है', इस प्रकार का कथन भी [वचः विरुद्धम्] प्रतिज्ञा के विरुद्ध ठहरता है ।
वर्णी
वर्णी :
अवाच्यमित्यत्र च वाच्यभावा-
दवाच्यमेवेत्ययथाप्रतिज्ञम् ।
स्वरूपतश्चेत्पररूपवाचि
स्व-रूपवाचीति वचो विरुद्धम् ॥29॥
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