सत्याऽनृतं वाऽप्यनृताऽनृतं
वाऽप्यस्तीह किं वस्त्वतिशायनेन ।
युक्तं प्रतिद्वन्द्वय्नुबंधि-मिश्रं
न वस्तु तादृक् त्वदृते जिनेदृक् ॥30॥
अन्वयार्थ : [सत्याऽनृतं वा अपि] कोई वचन सत्य-असत्य ही है, [अनृताऽनृतं वा अपि] दूसरा कोई वचन अनृताऽनृत असत्य- असत्य ही है और ये क्रमशः [प्रतिद्वन्द्वि-अनुबंधि-मिश्रं] प्रतिद्वन्द्वी से मिश्र और अनुबन्धि से मिश्र हैं। [इह] इस प्रकार [जिन] हे वीर जिन! [त्वद् ऋते] आप के बिना [वस्तु अतिशायनेन] वस्तु के उत्कृष्ता से प्रवर्तमान [ईदृक्] जो वचन है [किं] क्या [युक्तं अस्ति] वह युक्त है? [न वस्तु तादृक्] क्योंकि स्याद्वाद से शून्य उस प्रकार का वस्तु-स्वरूप वास्तविक नहीं है।
वर्णी
वर्णी :
सत्याऽनृतं वाऽप्यनृताऽनृतं
वाऽप्यस्तीह किं वस्त्वतिशायनेन ।
युक्तं प्रतिद्वन्द्वय्नुबंधि-मिश्रं
न वस्तु तादृक् त्वदृते जिनेदृक् ॥30॥
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