सहक्रमाद्वा विषयाऽल्प-भूरि-
भेदेऽनृतं भेदि न चाऽऽत्मभेदात् ।
आत्मांतरं स्याद्भिदुरं समं च
स्याच्याऽनृतात्माऽनभिलाप्यता च ॥31॥
अन्वयार्थ : [सहक्रमात् वा] युगपत् और क्रम की अपेक्षा से [विषयाऽल्पभूरिभेदे] विषय के अल्प और अधिक भेद होने पर [अनृतं] असत्य [भेदि] भेद वाला होता है, [न च आत्मभेदात्] आत्मभेद से नहीं। [आत्मान्तरं] जो सत्य आत्मान्तर है वह [भिदुरं समं च स्यात्] भेद स्वभाव और अभेद स्वभाव वाला है, [अनृतात्मा च] इसके अलावा अनृतात्मा और उभय स्वभाव को लिये हुए है। [अनभिलाप्यता] अनभिलाप्यता को [स्यात् च] प्राप्त है और किंचित् भेद-अवाच्य, किंचित् अभेद-अवाच्य और किंचित् उभय-अवाच्य भी है।
वर्णी
वर्णी :
सहक्रमाद्वा विषयाऽल्प-भूरि-
भेदेऽनृतं भेदि न चाऽऽत्मभेदात् ।
आत्मांतरं स्याद्भिदुरं समं च
स्याच्याऽनृतात्माऽनभिलाप्यता च ॥31॥
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