+ बौद्ध मत में चतुःकोटि की मान्यता का खण्डन -
न सच्च नाऽसच्च न दृष्टमेक-
मात्मांतरं सर्व-निषेध-गम्यम् ।
दृष्ठं विमिश्रं तदुपाधि-भेदात्
स्वप्नेऽपिनैतत्त्वदृषे: परेषाम् ॥32॥
अन्वयार्थ : [न सत् च] तत्त्व न सर्वथा सत्रूप (भाव) है, [न असत् च] न सर्वथा असत्रूप (अभावरूप) है, क्योंकि [न सर्वनिषेधगम्यम्] परस्पर निरपेक्ष सत्तत्त्व और असत्तत्त्व दिखाई नहीं पड़ता। इसी तरह (सत्-असत्, एक-अनेक आदि) सर्व धर्मों के निषेध का विषयभूत कोई [एकम्] एक [आत्मान्तरं] आत्मान्तर (परमब्रह्म) तत्त्व भी [न दृष्टं] नहीं देखा जाता। हाँ, [विमिश्रं] सत्वाऽसत्व से विमिश्र परस्पराऽपेक्षरूप तत्त्व जरूर [दृष्टं] देखा जाता है, [तदुपाधिभेदात्] और वह उपाधि् के भेद से है। [त्वद् ऋषेः] आप ऋषिराज से भिन्न [परेषां] जो दूसरे सर्वथा सत् आदि एकान्तों के वादी हैं उनके [एतत्] यह वचन अथवा इस रूप तत्त्व [स्वप्ने अपि] स्वप्न में भी [न] सम्भव नहीं है ।
ब्रह्माद्वैतवादी का कहना है कि यह सम्पूर्ण विश्व एक परमब्रह्मस्वरूप ही है। जगत् में जो कुछ भी प्रतिभासित हो रहा है वह सब परमब्रह्म की पर्याय है। सभी वस्तुएँ सत् रूप हैं बस! इस सत् का जो प्रतिभास है वही परमब्रह्म है।

  वर्णी 

वर्णी :

न सच्च नाऽसच्च न दृष्टमेक-

मात्मांतरं सर्व-निषेध-गम्यम् ।

दृष्ठं विमिश्रं तदुपाधि-भेदात्

स्वप्नेऽपिनैतत्त्वदृषे: परेषाम् ॥32॥