+ बौद्ध मतानुसार मान्य निर्विकल्पक-प्रत्यक्ष का निरसन -
प्रत्यक्ष-निर्देशवदप्यसिद्धम्-
ऽकल्पकं ज्ञापयितुं ह्यशक्यम् ।
विना च सिद्धेर्न च लक्षणार्थो
न तावकद्वेषिणि वीर ! सत्यम् ॥33॥
अन्वयार्थ : [प्रत्यक्षनिर्देशवद्] जो प्रत्यक्ष के द्वारा निर्देश को प्राप्त हो, ऐसा तत्त्व [अपि असिद्धं] भी असिद्ध है, क्योंकि जो [अकल्पकं] प्रत्यक्ष निर्विकल्पक (अकल्पक) है वह [ज्ञापयितुं हि अशक्यम्] दूसरों को तत्त्व के बतलाने-दिखलाने में किसी तरह भी समर्थ नहीं होता है। इसके सिवाय [सिद्धेः विना च] प्रत्यक्ष की सिद्धि के बिना [लक्षणार्थः च न] उसका लक्षणार्थ भी नहीं बन सकता है। [वीर] अतः, हे वीर जिन! [तावकद्वेषिणि] आपके अनेकान्तात्मक स्याद्वाद-शासन का जो द्वेषी है उसमें [सत्यम् न] सत्य घटित नहीं होता।

  वर्णी 

वर्णी :

प्रत्यक्ष-निर्देशवदप्यसिद्धम्-

ऽकल्पकं ज्ञापयितुं ह्यशक्यम् ।

विना च सिद्धेर्न च लक्षणार्थो

न तावकद्वेषिणि वीर ! सत्यम् ॥33॥