रवितारालोकेभ्यस्त्रयो नृणामपनयन्ति भयमाढ्या: ।
दीपविचोदनमर्यादाऽऽवृतिवाहादिरोहमत: ॥१७॥
कथयन्ति तु चत्वार: सुतेक्षणाद्भीतिमपहरन्त्यन्य: ।
नामकृतिं शशधरमभि शिशुकेलिं प्रकुरूतेऽन्य: ॥१८॥
जीवति सुतै: सहान्यो जलतरणं गर्भमलविशुद्धिं च ।
नालनिकर्तनमपि च त्रयोऽपि परे व्यपदिशंति नृणां ॥१९॥
अन्वयार्थ : पहले कुलकर ने सूर्य, चन्द्रमा के प्रकाश से जो लोग भयभीत हुए थे उनका भय निवारण किया। दूसरे ने तारागण के प्रकाश से भयभीत लोगों का भय निवारण किया। तीसरे ने सिंह, सर्पादि से जो लोग भयभीत हुए थे उनका भय निवारण किया। चौथे ने अन्धकार के भय को दीपक जलाने की शिक्षा से दूर किया। पाँचवें ने कल्पवृक्षों के स्वत्व की मर्यादा बाँधी। छठे ने अपनी नियमित सीमा में शासन करना सिखलाया। सातवें ने घोड़े, रथ, हाथी आदि सवारियों पर चढ़ना सिखलाया। आठवें कुलकर ने जो लोग अपने पुत्र का मुख देखने से भयभीत हुए थे उनका भय निवारण किया। नौवें कुलकर ने पुत्र-पुत्रियों के नामकरण की विधि बताई। दशवें ने चन्द्रमा को दिखलाकर बच्चों को क्रीड़ा करना सिखलाया। ग्यारहवें ने पिता पुत्र के व्यवहार का प्रचार किया अर्थात् लोगों को सिखलाया कि यह तुम्हारा पुत्र है तुम इसके पिता हो। बारहवें ने नदी समुद्रादि में नाव, जहाज आदि के द्वारा पार जाना, तैरना आदि सिखलाया। तेरहवें ने गर्भ, मल के शुद्ध करने का अर्थात् स्नानादि कर्म का उपदेश दिया। चौदहवें ने नाल काटने की विधि बतलाई ॥१७-१९॥