अथ नाभिराजनृपतेर्मरूदेव्यां व्यजनि नंदनो वृषभ: ।
तीर्थकृतामाद्योऽसौ प्रवर्त्य भरते भृशं तीर्थम् ॥२०॥
निर्वाणमवाप तत: पंचाशल्लक्षकोटिमितिवाद्र्धि: ।
यावदविच्छिन्नतया समागतं तत् श्रुतं सकलं ॥२१॥
अन्वयार्थ : पश्चात् चौदहवें कुलकर श्री नाभिराय की मरुदेवी महारानी के गर्भ से आदि तीर्थंकर श्री वृषभनाथ भगवान उत्पन्न हुए और भरतक्षेत्र में उन्होने अपने तीर्थ की प्रवृत्ति की। उनके निर्वाण होने पर पचास लाख कोटी सागर वर्ष तक सम्पूर्ण श्रुतज्ञानअविच्छिन्न रूप से प्रकाशित रहा ॥२०-२१॥