जातस्ततोऽजितजिन: शिष्येभ्य: सोऽपि सम्यगुपदिश्य ।
तत् श्रुतमखिलं प्रापन्निर्वाणमनुत्तरं तद्वत् ॥२२॥
एवमजितादिचन्द्रप्रभान्ततीर्र्थेशिनामतिक्रांता ।
सागरकोटीनां त्रिंशक्रमाद्दशभिरथ नवभि: ॥२३॥
लक्षैस्तथा नवत्या नवभिश्च सहस्रकै: शतै: नवभि: ।
शंभवमुख्यात् श्रुतमापन्नमत्या च पुष्पदंतान्तात् ॥२४॥
अन्वयार्थ : अनंतर दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथ भगवान ने अवतार लिया और वे भी अपने शिष्यों को भलीभाँति उपदेश करते हुए मोक्ष पधारे। उनके पश्चात् भी श्रुतज्ञान अस्खलित गति से चलता रहा। श्री अजितनाथ के निर्वाण हो जाने के तीस लाखकोटि सागर पीछे सम्भवनाथ जी, उनसे दश लाखकोटि सागर पीछे श्री अभिनंदन, उनसे नौ लाख कोटिसागर पीछे श्री सुमतिनाथ, उनसे नब्बे हजार कोटिसागर पीछे पद्मनाथ, नौ हजार कोटिसागर पीछे श्री सुपार्श्वनाथ, नौ सौ कोटिसागर पीछे श्री चंद्रप्रभ और चंद्रप्रभ से नब्बे कोटिसागर पीछे श्री पुष्पदंतनाथ भगवान हुए । यहाँ तक समस्त श्रुत अव्यवहित प्रकाशित रहा ॥२२-२४॥