सुरनरमुनिवृन्दारकवृन्देष्वपि समुदितेषु तीर्थकृत: ।
षट्षष्टिरहानि न निर्जगाम दिव्यध्वनिस्तस्य ॥४२॥
अन्वयार्थ : [सुरनरमुनिवृन्दारकवृन्देषु] भवन, व्यंतर, ज्योतिषी देवों, मुनियों एवं कल्पवासी देवों के एवं अन्य श्रोता समूह के [समुदितेषु] इकट्ठे होने पर [अपि] भी [तस्य तीर्थकृत] उन कैवल्य प्राप्त तीर्थंकर भगवान की [दिव्यध्वनिः] दिव्यवाणी (निरक्षरी ओंकारमयी) [षट्षष्टिः] छियासठ [अहानि] दिन तक [न निर्जगाम] नहीं निकली [प्रकट नहीं हुई]