तत्र स गत्वा ब्राह्मणशालायामिन्द्रभूतिनामानम् ।
छात्रशतपंचकेभ्यो व्याख्यानं विदधतं विप्रम् ॥४४॥
गौतमगोत्रं विद्यामदगर्वितमखिलवेद वेदांग
प्रतिबुद्धतत्वमवलोक्य कवलिकाछात्रवेषेण ॥४५॥
तद्व्याख्यानं श्रृण्वन्नेकोद्देशे द्विजन्मशालाया: ।
स्थित्वा ततो भवद्भि: प्रतिबुद्धं तत्त्वमिति तस्य ॥४६॥
छात्रेभ्य: प्रतिपादनसमयेऽसौ नासिकाग्रभंगेन ।
मुहुरत्यरूचिं प्रकटीकुर्वन्नुपलक्षितश्छात्रै: ॥४७॥
अन्वयार्थ : [तत्र] उस गौतम ग्राम में, [गत्वा] जाकर [ब्राह्मण शालायां] एक ब्राह्मण शाला में [व्याख्यान] उपदेश को [विदधत] देने वाले [गौतम गोत्रं] गौतम इस गौत्र वाले तथा [विद्यामद गर्वित] विद्या के गर्व से गर्वित [अखिल वेद वेदान प्रतिबुद्ध तत्त्व] सम्पूर्ण वेद वेदाङ्गों के तत्त्व को जानने वाले [इन्द्रभूति] इंद्रभूति नाम के [विप्रं] ब्राह्मण को [अवलोक्य] देखकर [कवलिका छात्र वेषेण] लघुग्नास मात्र भोजी छात्र के वेष द्वारा [द्विजन्मशालायाः] उस ब्राह्मण शाला के [एकोद्देशे] एक प्रदेश में एक ओर [स्थित्वा] खड़े होकर [तद् व्याख्यानं] उस इन्द्रभूति आचार्य के व्याख्यान को [श्रृण्वन] सुनते हुए [तत्तः] उन आचार्य से आप लोगों द्वारा [तत्त्व] तत्त्व को [प्रतिबुद्ध] जाना इति ऐसा पूछने पर [छात्रेभ्यः] छात्रों से [प्रतिपादन समये] बताने के समय [असौ] उस इन्द्र ने [नासिकाग्र] नासिका के अग्रभागों के [भन] विकार द्वारा [मुहुः] बार-बार [अरुचिं] अरुचि को [प्रकटी कुर्वन्] प्रकट करते हुए [छात्रैः] छात्रों द्वारा [उपलक्षित] देख लिया गया।