श्रुत्वा तेनेत्युदितामश्रुतपूर्वामतीव विषमार्थाम् ।
आर्यामिमां ततोऽस्या: सोऽर्थमजानन्निति तमूचे ॥५३॥
अन्वयार्थ : [तेन] उस ब्राह्मण विद्यार्थी का वेश धारण करने वाले इन्द्र द्वारा [इति] उपरिलिखित प्रकार से [उदितां] कही हुई [अश्रुतपूर्वा] पहले कभी न सुनी हुई [अतीव विषमार्थाम्] अत्यन्त विषम अर्थ वाली [इमा आर्या] इस आर्या छन्द में विरचित पद को [श्रुत्वा] सुनकर [ततः] अनन्तर [अस्याः ] इस आर्या पद के [अर्थ] अर्थ को [अजानन्] नहीं जानता हुआ [तम्] उस छात्र वेशधारी से [सः] वह इन्द्रभूति आचार्य [इति] इस प्रकार [ऊचे] कहने लगे।