कस्यच्छात्रस्तावत्त्वं कथयेत्याह सोऽपि भट्टार्हत् ।
श्री वर्द्धमानभट्टारकस्य जगतीगुरोश्छात्र: ॥५४॥
अन्वयार्थ : [तावत् त्वं] तो तुम [कस्य] किसके [छात्रः] विद्यार्थी / शिष्य हो [इति कथय] ऐसा कहिये। [सः] वह [आह] बोला [भट्टाहत्] वह योग्य शिष्य [अपि] भी [जगतीगुरो] इस जगत भर के गुरु [श्री वर्धमान भट्टारकस्य] पूज्य वर्द्धमान का [छात्रः] विद्यार्थी [अस्मि] हूँ।