एहि व्रजाव इत्यभिधाय पुरोधाय गौतम: शक्रम् ।
समवसृतिं भ्रातृभ्यामायाद्वायुवन्हिभूतिभ्याम् ॥५७॥
अन्वयार्थ : [गौतमः] गौतम इन्द्रभूति आचार्य [एहि] आओ [व्रजाव] हम दोनों चलें [इत्यभिधाय] ऐसा कहकर [वायुवह्निभूतिभ्याम्] वायुभूति एवं अग्निभूति दोनों [भ्रातृभ्याम्] भाइयों के साथ [समवसृति] समवशरण सभा को [आयात्] गया।