दृष्ट्वा मानस्तम्भं विगलितमानोदयो द्विजन्माऽसीत् ।
भ्रातृभ्यां सह जिनपतिमवलोक्य परीत्य तं भक्त्या ॥५८॥
नत्वा नुत्वा त्यक्त्वाऽऽशेषपरिग्रहमनाग्रहो दीक्षां ।
आदायाग्रिमगणभृद्बभूव सप्तर्द्धिसंपन्न: ॥५९॥
अन्वयार्थ : [द्विजन्मा] वह संस्कार पवित्रित जन्म वाला ब्राह्मण इन्द्रभूति [मानस्तम्भ] मानस्तम्भ को [दृष्ट्वा ] देखकर [विगलित मानोदय] गल गया है मान जिसका ऐसा [भ्रातभ्यां] दोनों वायुभूति एवं अग्निभूति भाइयों के साथ निरभिमानी [आसील] हुआ [जिनपति] परम-वीतराग जिनेन्द्र वर्द्धमान महावीर के [अवलोक्य] दर्शन करके [भक्त्या] भक्ति से [तं] उन्हें [परीत्य] प्रदक्षिणा देकर [नत्वा] नमस्कार कर [नुत्वा] स्तुति कर [अनाग्रह] मिथ्या-आग्रह से रहित हुआ [अशेष परिग्रह] सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर [दीक्षा आदाय] दीक्षा ग्रहण कर [सप्तर्द्धि सम्पन्नः] सप्त ऋद्धियों से संपन्न होकर [अग्रिम गणभृत] प्रथम गणधर [बभूव] हुआ।