दृष्ट्वा मानस्तम्भं विगलितमानोदयो द्विजन्माऽसीत् ।
भ्रातृभ्यां सह जिनपतिमवलोक्य परीत्य तं भक्त्या ॥५८॥
नत्वा नुत्वा त्यक्त्वाऽऽशेषपरिग्रहमनाग्रहो दीक्षां ।
आदायाग्रिमगणभृद्बभूव सप्तर्द्धिसंपन्न: ॥५९॥
अथ भगवान् किं जीवोऽस्ति नास्ति वा किं गुण: कियान्कीदृक ।
इत्यादिषडयुतप्रमितं तद्गणेट् प्रश्नपर्यंते ॥६०॥
अन्वयार्थ : वहाँ पहुँचने पर ज्यों ही मानस्तम्भ के दर्शन हुए त्यों ही उन तीनों का गर्व गलित हो गया। पश्चात् जिनेन्द्र भगवान को देखकर इनके हृदय में भक्ति का संचार हुआ इसलिये उन्होंने तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया, स्तुति पाठ पढ़ा और उसी समय समस्त परिग्रह का त्याग करके जिनदीक्षा ले ली। इंद्रभूति को तत्काल ही सप्त ऋद्धियाँ प्राप्त हो गर्इं और आखिर में वे भगवान के चार ज्ञान के धारी प्रथम गणधर हो गये। समवसरण में उन इंद्रभूति गणधर ने भगवान से ''जीव अस्तिरूप है, अथवा नास्तिरूप है? उसके क्या-क्या लक्षण हैं, वह कैसा है,'' इत्यादि साठ हजार प्रश्न किये ॥५८-६०॥