जीवोऽस्त्यनादिनिधन: शुभाशुभविभेदकर्मणां कर्ता ।
सदसत्कर्मफलानां भोक्ता स्वोपात्ततनुमात्र: ॥६१॥
उपसंहरणविसर्पणधर्मज्ञानादिभिर्गुणैर्युक्त: ।
ध्रौव्योत्पत्तिव्ययलक्षण: स्वसंवेदनग्राह्य: ॥६२॥
नोकर्मकर्मपुद्गलमनादिरूपात्तकर्मसंबंधात् ।
गृण्हन् मुंचन् भ्राम्यन् भवे भवे तत्क्षयान्मुक्त: ॥६३॥
इत्याद्यनेकभेदैस्तथा स जीवादिवस्तुसद्भावम् ।
दिव्यध्वनिना स्फुटमिन्द्रभूतये सन्मतिरवोचत् ॥६४॥
अन्वयार्थ : उत्तर में ''जीव अस्तिरूप है, अनादिनिधन है, शुभाशुभरूप कर्मों का कर्ता भोक्ता है, प्राप्त हुए शरीर के आकार है, उपसंहरण विसर्पण धर्मवाला और ज्ञानादि गुणों करके युक्त है, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य लक्षणविशिष्ट है स्वसंवेदन ग्राह्य है, अनादि प्राप्त कर्मों के संबंध से नोकर्म-कर्मरूप पुद्गलों को ग्रहण करता हुआ, छोड़ता हुआ, भव भव में भ्रमण करने वाला और उक्त कर्मों के क्षय होने से मुक्त होने वाला है'' इस प्रकार से अनेक भेदों से जीवादि वस्तुओं का सद्भाव भगवान ने दिव्यध्वनि के द्वारा प्रस्फुटित किया ॥६१-६४॥