श्रावणबहुलप्रतिपद्युदितेऽर्के रौद्रनामनि मुहूर्ते।
अभिजिद्गते शशांके तीर्थोत्पत्तिर्बभूव गुरो: ॥६५॥
तेनेन्द्र भूतिगणिना तद्दिव्यवचोऽवबुध्य तत्त्वेन ।
ग्रन्थोऽङ्गपूर्वनाम्ना प्रतिरचितो युगपदपराण्हे ॥६६॥
प्रतिपादितं ततस्तत् श्रुतं समस्तं महात्मना तेन ।
प्रथितात्मीयसधर्मणे सुधर्माभिधानाय ॥६७॥
सोपि प्रतिपादितवान् जम्बूनाम्ने सधर्मणे स्वस्य ।
तेभ्यस्ततो गणिभ्योऽन्यैरपि तदधीतं मुनिवृषभै: ॥६८॥
अन्वयार्थ : पश्चात् श्रावण मास की प्रतिपदा को सूर्योदय के समय रौद्र मुहूर्त में जबकि चंद्रमा अभिजित नक्षत्र पर था, गुरु के तीर्थ की उत्पत्ति हुई। श्री इंद्रभूति गणधर ने भगवान की वाणी को तत्त्वपूर्वक जानकर उसी दिन सायंकाल को अंग और पूर्वों की रचना युगपत् की और फिर उसे अपने सहधर्मी सुधर्मास्वामी को पढ़ाया। इसके अनंतर सुधर्माचार्य ने अपने साधर्मी जम्बूस्वामी को और उन्होंने अन्य मुनिवरों को वह श्रुत पढ़ाया ॥६५-६८॥