सन्मतिजिनस्ततोऽसावासन्नविमुक्ति भव्यसस्यानाम् ।
परमानंदं जनयन् धर्मामृतवृष्टिसेकेन ॥६९॥
त्रिंशतमिह वर्षाणां विहृत्य बहुजनपदान् जगत्पूज्य: ।
सरसिजवनपरिकलिते पावापुरबहिरुद्याने ॥७०॥
वत्सरचतुष्टयेऽर्द्वं त्रिमासहीने चतुर्थकालस्य ।
शेषे कार्तिककृष्ण चतुर्दश्यां निर्वृतिमवाप ॥७१॥
अन्वयार्थ : पश्चात् जगत्पूज्य श्रीसन्मतिनाथ अनेक निकट भव्यरूपी सस्यों को (धान्य को) धर्मामृतरूपी वर्षा के सिंचन से परमानन्दित करते हुए तीस वर्ष तक अनेक देशों में विहार करते हुए कमलों के वन से अतिशय शोभायमान पावापुर के उद्यान में पहुंचे और वहाँ से जब तीन वर्ष साढ़े आठ महीने चतुर्थकाल के शेष रह गये, तब कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी को मोक्ष पधारे ॥६९-७१॥