भगवत्परिनिर्वाणक्षण एवावाप केवलं गणभृत् ।
गौतमनामा सोऽपि द्वादशभिर्वत्सरैर्मुक्त: ॥७२॥
निर्वाणक्षण एवासावापत्केवलं सुधर्ममुनि: ।
द्वादशवर्षाणि विहृत्य सोऽपि मुक्तिम परामाप ॥७३॥
जम्बूनामाऽपि ततस्तन्निर्वृतिसमय एव कैवल्यम् ।
प्राप्याष्टत्रिंशतमिह समा विहृत्याप निर्वाणम् ॥७४॥
एते त्रयोऽपि मुनयोऽनुबद्धकेवलिविभूतयोऽमीषाम् ।
केवलदिवाकरोऽस्मिन्नस्तमवाप व्यतिक्रान्ते ॥७५॥
अन्वयार्थ : भगवान के निर्वाण होने के साथ ही श्री इंद्रभूति गणधर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और वे बारह वर्ष विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। उनके निर्वाण होते ही सुधर्माचार्य को केवलज्ञान का उदय हुआ सो उन्होंने भी बारह वर्ष विहार करके अन्तिम गति पाई और तत्काल ही जम्बूस्वामी को केवलज्ञान हुआ। उन्होंने ३८ वर्ष विहार करके भव्य जीवों को धर्मोपदेश दिया और अंत में मोक्षमहल को प्रयाण किया। इन तीनों मुनियों ने परम केवल विभूति को पाई तब तक केवल दिवाकर का उदय निरंतर बना रहा परन्तु उनके पश्चात् ही उसका अस्त हो गया२ ॥७२-७५॥