नक्षत्रो जयपाल: पांडुर्द्रुंसेनकंसनामानौ ।
एते पंचापि ततो बभूवुरेकादशांगधरा: ॥८१॥
विंशत्यधिकं वर्षशतद्वयमेषां बभूव युगसंख्या ।
आचारांगधराश्चत्वारस्तत उद्भवन् क्रमश: ॥८२॥
प्रथमस्तेषु सुभद्रोऽभयभद्रोऽन्यापरोऽपि जयबाहु: ।
लोहार्योऽन्त्यश्चैतेऽष्टादशवर्ष युगसंख्या ॥८३॥
अन्वयार्थ : पश्चात् दो सौ बीस वर्ष में नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, द्रुमसेन और कंसाचार्य ये पाँच मुनि ग्यारह अंग के ज्ञाता हुए। पश्चात् एक सौ अठारह वर्ष में सुभद्र, अभयभद्र, जयबाहु और लोहाचार्य ये चार मुनीश्वर आचारांग शास्त्र के परम विद्वान् हुए। यहाँ तक, अर्थात् श्री वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष पीछे तक अंगज्ञान की प्रवृत्ति रही, अनंतर कालदोष से वह भी लुप्त हो गयी ॥८१-८३॥