विनयधर: श्रीदत्त: शिवदत्तोऽन्योऽर्हद्दत्तनामैते ।
आरातीया यतयस्ततोऽभवन्नंगपूर्वदेशधरा: ॥८४॥
सर्वांग पूर्वदेशैकदेशवित्पूर्वदेशमध्यगते ।
श्रीपुण्ड्रवर्धनपुरे मुनिरजनि ततोऽर्हद्बल्याख्य: ॥८५॥
स च तत्प्रसारणाधारणा विशुद्धातिसत्क्रियोद्युक्त: ।
अष्टांगनिमित्तज्ञ: संघानुग्रहनिग्रहसमर्थ: ॥८६॥
अन्वयार्थ : लोहाचार्य के पश्चात् विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त ये चार आरातीय मुनि अंगपूर्वदेश के अर्थात् अंगपूर्व ज्ञान के कुछ भाग के ज्ञाता हुए। और फिर पूर्वदेश के पुण्ड्रवर्धनपुर में श्री अर्हद्बलि मुनि अवर्तीण हुए। जो अंगपूर्वदेश के भी एकदेश के जानने वाले थे, श्रुत-ज्ञान के प्रसारण, धारण, विशुद्धि करण आदि उत्तम क्रियाओं में निरंतर तत्पर थे, अष्टांगनिमित्त ज्ञान के ज्ञाता थे और मुनिसंघ का निग्रह अनुग्रहपूर्वक शासन करने में समर्थ थे ॥८४-८६॥