आस्ते संवत्सरपंचकावसाने युगप्रतिक्रमणम् ।
कुर्वन्योजनशतमात्रवर्तिमुनिजन समाजस्य ॥८७॥
अथ सोऽन्यदा युगांते कुर्वन् भगवान् युगप्रतिक्रमणम् ।
मुनिजनवृन्दमपृच्छत्किं सर्वेऽप्यागता यतय: ॥८८॥
तेऽप्यूचुर्भगवन् वयमात्मात्मीयेन सकलसंघेन ।
सममागतास्ततस्तद्वच: समाकण्र्य सोऽपि गणी ॥८९॥
काले कलावमुष्मिन्नित: प्रभृत्यत्र जैनधर्मोऽयम् ।
गणपक्षपातभेदै: स्थास्यति नोदासभावेन ॥९०॥
अन्वयार्थ : इसके सिवाय वे प्रत्येक पांच वर्ष के अंत में सौ योजन क्षेत्र में निवास करने वाले मुनियों के समूह को एकत्र करके युगप्रतिक्रमण कराते थे। एक बार उक्त भगवान अर्हद्बलि आचार्य ने युगप्रतिक्रमण के समय मुनिजनों के समूह से पूछा कि ''सब यति आ गये?'' उत्तर में उन मुनियों ने कहा कि-''भगवन्! हम सब अपने-अपने संघ सहित आ गये।'' इस वाक्य में अपने-अपने संघ के प्रति मुनियों की निजत्व बुद्धि (पक्षबुद्धि) प्रगट होती थी इसलिये तत्काल ही आचार्य भगवान ने निश्चय कर लिया कि इस कलिकाल में अब आगे यह जैनधर्म भिन्न-भिन्न गणों के पक्षपात से ठहर सकेगा, उदासीन भाव से नहीं अर्थात् आगे के मुनि अपने-अपने संघ का गण का, गच्छ का पक्ष धारण करेंगे, सबको एकरूप समझकर मार्ग की प्रवृत्ति नहीं कर सकेंगे ॥८७-९०॥