इति संचिंत्य गुहाया: समागता ये यतीश्वरास्तेषु ।
कांश्चिन्नंद्यभिधानान् कांश्चि 'द्वीरा' ह्व्यानकरोत् ॥९१॥
प्रथितादशोक वाटात्समागता ये मुनीश्वरास्तेषु ।
काँश्चि 'दपराजिता' ख्यान् काँश्चिद् 'देवा' ह्वयानकरोत् ॥९२॥
पंचस्तूप्यनिवासादुपागता येऽनगरिणस्तेषु ।
काँश्चित्'सेना' भिख्यान्काँश्चिद्'भद्रा'भिधानकरोत् ॥९३॥
ये शाल्मली महाद्रुम मूलाद्यतयोऽभ्युपागतास्तेषु ।
काँश्चिद् 'गुणधर' संज्ञान् काँश्चिद् गुप्ताह्यानकरोत् ॥९४॥
ये खण्डकेसरद्रुममूलान्मुनय: समागतास्तेषु ।
काँश्चित्'सिंहा'भिख्यान् कांश्चिच् 'चन्द्रा' ह्व्यानकरोत् ॥९५॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार विचार करके उन्होंने जो मुनिगण गुफा से आये थे, उनमें से किसी-किसी की नंदि और किसी-किसी की वीर संज्ञा रखी। जो अशोकवट से आये थे उनमें से किसी की अपराजित और किसी की देव संज्ञा रखी। जो पंचस्तूपों का निवास छोड़कर आये थे, उनमें से किसी को सेन और किसी को भद्र बन दिया। जो महाशाल्मली (सेंवर) वृक्षों के नीचे से आये थे, उनमें से किसी की गुणध और किसी की गुप्त संज्ञा रखी और जो खंडकेसर (बकुल) वृक्षों के नीचे से आये थे उनमें से किसी की सिहं और किसी की चंद्र संज्ञा रखी ॥९१-९५॥