विद्यासाधनमेवं विधाय तोषा त्ततो गुरो: पाश्र्वम् ।
गत्वा तौ निजवृत्तान्तमवदतां तद्यथावृत्तम् ॥१२३॥
सोऽप्यतियोग्याविति संचिन्त्य तत: सुप्रशस्ततिथिवेला ।
नक्षत्रेषु तयोर्व्याख्यातुं प्रारब्धवान् ग्रंथम् ॥१२४॥
ताभ्यामप्यध्ययनं कुर्वाणाभ्यामपास्ततन्द्राभ्याम् ।
परममविलंघयद्भ्यां गुरुविनयं ज्ञानविनयं च ॥१२५॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार से विद्यासाधन करके संतुष्ट होकर उन दोनों मुनियों ने गुरुदेव के समीप जाकर अपना सारा वृत्तान्त निवेदन किया, उसे सुनकर श्री धरसेनाचार्य ने उन्हें अतिशय योग्य समझकर शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ समय में ग्रंथ का व्याख्यान करना प्रारंभ कर दिया और वे मुनि भी आलस्य छोड़कर गुरूविनय तथा ज्ञानविनय का पालन करते हुए अध्ययन करने लगे ॥१२३-१२५॥