दिवसेषु कियत्स्वपिगतेष्वथाषाढमासि सितपक्षे ।
एकादश्यां च तिथौ ग्रंथसमाप्ति: कृता विधिना ॥१२६॥
तद्दिन एवैकस्य द्विजपक्तिम विषमितामपास्य सुरै: ।
कृत्वा कुंडोपमिताम नाम कृतं 'पुष्पदंत' इति ॥१२७॥
अपरोऽपि तुर्यनादैर्जयघोषैर्गंधमाल्यधूपाद्यै: ।
'भूतपति'रेष इत्याहूतो भूतैर्महं कृत्वा ॥१२८॥
अन्वयार्थ : कुछ दिन के पश्चात् आषाढ शुक्ला ११ को विधिपूर्वक ग्रंथ समाप्त हुआ। उस दिन देवों ने प्रसन्न होकर प्रथम मुनि की दंतपंक्ति को जो कि विषमरूप थी, कुं द के पुष्पों सरीखा कर दिया और उनका पुष्पदंत ऐसा सार्थक नाम रख दिया। इसी प्रकार से भूत जाति के देवों ने द्वितीय मुनि की तूर्यनाद-जयघोष तथा गंध माल्य धूपादिक से पूजा करके उनका भी सार्थक नाम भूतबलि रख दिया ॥१२६ से १२८॥