जग्मतुरथ करहाटे तयो: स य: पुष्पदंतनाममुनि: ।
जिनपालिताभिधानं दृष्ट्वासौ भागिनेयं स्वम् ॥१३२॥
दत्वा दीक्षां तस्मै तेन समं देशमेत्य वनवासम् ।
तस्थौ भूतबलिरपि मथुरायां द्रविडदेशेऽस्थात् ॥१३३॥
अथ पुष्पदंतमुनिरप्यध्यापयितुं स्वभागिनेयं तम् ।
कर्मप्रकृतिप्राभृतमुपसंहार्यैव षड्भिरिह खण्डै: ॥१३४॥
वांच्छन् गुणजीवादिकविंशतिविधसूत्रसत्प्ररूपणया ।
युक्तम जीवस्थानाद्यधिकारं व्यरचयत्सम्यक् ॥१३५॥
अन्वयार्थ : कुछ दिन के पश्चात् वे दोनों महात्मा करहाट नगर में पहुँचे। वहाँ श्री पुष्पदंत मुनि ने अपने जिनपालित नामक भान्जे को देखा और उसे जिनदीक्षा देकर वे अपने साथ ले वनवासदेश में जा पहुँचे। इधर भूतबलि द्रविड देश के मथुरानगर में पहुँचकर ठहर गये। करहाट नगर से उक्त दोनों मुनियों का साथ छूट गया। श्री पुष्पदंत मुनि ने जिनपालित को पढ़ाने के लिये विचार किया कि कर्मप्रकृति प्राभृत का छह खंडों में उपसंहार करके ग्रंथरूप रचना करनी चाहिए और इसलिये उन्होंने प्रथम ही जीवस्थानाधिकार की जिसमें कि गुणस्थान, जीवसमासादि बीस प्ररूपणाओं का वर्णन है, बहुत उत्तमता के साथ रचना की ॥१३२-१३५॥