सूत्राणि तानि शतमध्याप्य ततो भूतिबलि गुरो:पाश्र्वं ।
तदभिप्रायं ज्ञातुं प्रस्थापयदगमदेषोऽपि ॥१३६॥
तेन तत: परिपठितां भूतबलि: सत्प्ररूपणां श्रुत्वा ।
षट्खण्डागमरचनाभिप्रायं पुष्पदंत गुरो: ॥१३७॥
विज्ञायाल्पायुष्यानल्पमतीन्मानवान् प्रतीत्य तत: ।
द्रव्य प्ररूपणाद्यधिकार: खण्डपंचकस्यान्वक् ॥१३८॥
सूत्राणि षट्सहस्रग्रंथान्यथ पूर्वसूत्रसहितानि ।
प्रविरच्य महाबन्धाह्व्यं तत: षष्ठकं खण्डं ॥१३९॥
त्रिंशत्सहस्रसूत्रग्रंथं व्यरचयदसौ महात्मा ।
तेषां पंचानामपि खण्डानां श्रृणुत नामानि ॥१४०॥
अन्वयार्थ : फिर उस शिष्य को सौ सूत्र पढ़ाकर श्री भूतबलिमुनि के पास उनका अभिप्राय ज्ञात करने के लिये अर्थात् यह जानने के लिये कि वे इस कार्य के करने में सहमत हैं अथवा नहीं हैं, और हैं तो जिस रूप में रचना हुई है, उसके विषय में क्या सम्मति देते हैं, भेज दिया। उसने भूतबलि महर्षि के समीप जाकर के प्ररूपणासूत्र सुना दिये। जिन्हें सुनकर उन्होंने श्री पुष्पदंत मुनि की षट्खंडरूप आगमरचना का अभिप्राय जान लिया और अब लोग दिन पर दिन अल्पायु और अल्पमति होते जाते हैं, ऐसा विचार करके उन्होंने स्वयं पाँच खंडों में पूर्व सूत्रो के सहित छह हजार श्लोकाविशिष्ट द्रव्यप्ररूपणााधिकार की रचना की और उसके पश्चात् महाबंध नामक छठे खंड को तीस हजार सूत्रों में समाप्त किया ॥१३६-१४०॥