एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगत: समागच्छन् ।
गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धांत: कुंडकुंदपुरे ॥१६०॥
श्रीपद्मनंदिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्त्रपरिणाम: ।
ग्रंथपरिकर्म कर्ता षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य ॥१६१॥
काले तत: कियत्यपि गते पुन: शामकुण्डसंज्ञेन ।
आचार्येण ज्ञात्वा द्विभेदमप्यागम: कार्त्स्न्यात् ॥१६२॥
द्वादशगुणितसहस्त्रम ग्रंथं सिद्धांतयोरुभयो: ।
षष्ठेन विना खण्डेन पृथुमहाबंधसंज्ञेन ॥१६३॥
प्राकृतसंस्कृतकर्णाटभाषया पद्धति: परा रंचिता ।
तस्मादारात्पुनरपि काले गतवति कियत्यपि च ॥१६४॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार से उक्त दोनों कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत सिद्धांतों का ज्ञान द्रव्यभावरूप२ पुस्तकों से और गुरुपरंपरा से कुण्डकुन्दपुर में ग्रंथपरिकर्म के कर्त्ता श्री पद्ममुनि को प्राप्त हुआ सो उन्होंने भी छह खण्डों में से पहले तीन खण्डों की बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका रची। कुछ काल बीतने पर श्री श्यामकुण्ड आचार्य ने सम्पूर्ण दोनों आगमों को पढ़कर केवल एक छठे महाबंध खंड को छोड़कर शेष दोनों ही प्राभृतों की बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका बनाई। इन्हीं आचार्य ने प्राकृत, संस्कृत और कर्णाटक भाषा की उत्कृष्ट पद्धति की रचना की ॥१६०-१६४॥