कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्जं कारिऊण जीवंतो ।
णहंतो सीयलणीरे पावं पउरं स संजेदि ॥27॥
कच्छं क्षेत्रं वसतिं वाणिज्यं कारयित्वा जीवन् ।
स्नात्वा शीतलनीरे पापं प्रचुरं स संचयति ॥२७॥
अन्वयार्थ : कछार , खेत, वसतिका और वाणिज्य आदि कराके जीवन-निर्वाह करते हुए और शीतल जल में स्नान करते हुए उसने प्रचुर पाप का संग्रह किया । अर्थात् उसने ऐसा उपदेश दिया कि मुनिजन यदि खेती करावें, रोजगार करावें, वसतिका बनवावें और अप्रासुक जल में स्नान करें तो कोई दोष नहीं है ।