सम्मत्तपयडिमिच्छंतं कहियं जं जिणिंदविंवेसु ।
अप्पपरणिट्ठिएसु य ममत्तबुद्धीए परिवसणं ॥41॥
एसो मम होउ गुरू अवरो णत्थित्ति चित्तपरियरणं ।
सगगुरुकुलाहिमाणो इयरेसु वि भंगकरणं च ॥42॥
सम्यक्त्वप्रकृतिमिथ्यात्वं कथितं यत् जिनेन्द्रबिम्बेषु ।
आत्मपरनिष्ठितेषु च ममत्वबुद्धया परिवसनम् ॥४१॥
एष मम भवतु गुरुः अपरो नास्तीति चित्तपरिचलनम् ।
स्वकगुरुकुलाभिमान इतरेषु अपि भंगकरणं च ॥४२॥
अन्वयार्थ : उसने अपने और पराये प्रतिष्ठित किये हुए जिनबिम्बों की ममत्व बद्धिद्वारा न्यूनाधिक भाव से पूजा-वन्दना करने; मेरा गुरु यह है, दूसरा नहीं है, इस प्रकार के भाव रखने; अपने गुरुकुल का आभिमान करने और दूसरे गुरुकुलों का मानभंग करनेरूप सम्यक्त्व-प्रकृतिमिथ्यात्व का उपदेश दिया ।