दक्खिणदेसे विंझे पुक्कलए वीरचंदमुणिणाहो ।
अट्ठारसएतीदे भिल्लयसंघं परुवेदि ॥45॥
सोणियगच्छंकिच्चा पड़िकमणंतहयभिण्णकिरियाओ ।
वण्णाचारविवाई जिणमग्गं सुट्ठु णिहणेदि ॥46॥
दक्षिणदेशे विन्ध्ये पुष्करे वीरचन्द्रमुनिनाथः ।
अष्टादशशतेऽतीते भिल्लकसंघं प्ररूपयति ॥४५॥
स निजगच्छं कृत्वा प्रतिक्रमणं तथा च भिन्नक्रिया: ।
वर्णाचारविवादी जिनमार्गे सुष्ठ निहनिष्यति ॥४६॥
अन्वयार्थ : दक्षिणदेश में *विन्ध्य-पर्वत के समीप पुष्कर नाम के ग्राम में वीरचन्द्र नाम का मुनिपति विक्रमराजा की मुत्यु के १८०० वर्ष बीतने के बाद भिल्लक संघ को चलायगा । वह अपना एक जुदा गच्छ बनाकर जुदा ही प्रतिक्रमण विधि बनायगा, भिन्न क्रियाओं का उपदेश देगा, और वर्णाचार का विवाद खड़ा करेगा । इस तरह वह सच्चे जैन-धर्म का नाश करेगा ।*श्रवणबेलगुरु में विन्ध्यगिरि और चन्द्रगिरि नाम के दो पर्वत हैं । विन्ध्य से ग्रन्थकर्ता का अभिप्राय वहीं के विन्ध्य-पर्वत से होना चाहिए । दक्षिण में और कोई विन्ध्य-पर्वत नहीं है ।