विशेष :
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ओघ (गुणस्थान) से उत्तर-प्रकृतियों में त्रिसंयोग में स्थान |
| गुणस्थान |
1 |
2 |
3 |
4 |
5 |
6 |
7 |
8 |
9 |
10 |
11 |
12 |
13 |
14 |
| उ.श्रे. |
क्ष.श्रे. |
उ.श्रे. |
क्ष.श्रे. |
उ.श्रे. |
क्ष.श्रे. |
| ज्ञानावरण, अंतराय |
बंध |
5 |
-na- |
| उदय |
5 |
-na- |
| सत्त्व |
5 |
-na- |
| दर्शनावरण |
बंध |
9 |
6 |
6 / 4 |
4 |
0 |
| उदय |
4 / 5 |
4 / 5 |
4 |
-na- |
| सत्त्व |
9 |
9 |
9 / 6 |
9 |
6 |
9 |
6 |
4 |
-na- |
| वेदनीय |
बंध |
साता / असाता |
साता |
-na- |
| उदय |
साता / असाता |
साता / असाता |
| सत्त्व |
2 |
| अयोग-केवली के चरम-समय में दोनों में से एक का ही उदय और उसी की सत्ता है |
| प्रमत्त-संयत तक साता / असाता के उदय / बंध से 4 भंग हैं, उसके आगे सायोग-केवली तक साता / असाता के उदय से दो भंग हैं |
| गोत्र |
बंध |
नीच / उच्च |
नीच / उच्च |
उच्च |
उच्च |
-na- |
| उदय |
नीच / उच्च |
नीच / उच्च |
नीच / उच्च |
उच्च |
उच्च |
उच्च |
| सत्त्व |
2 / *नीच |
2 |
2 |
2 |
2 |
2 / *उच्च |
| मिथ्यात्व गुणस्थान में उच्च गोत्र की उद्वेलना करने वाले अग्नि / वायुकायिक के नीच-गोत्र का ही बंध-उदय-सत्त्व पाया जाता है, वहाँ से निकलकर तिर्यञ्च होकर पहले अंतर्मुहूर्त तक यही भंग पाया जाता है |
| अयोग-केवली के दोनों की या उच्च-गोत्र की ही सत्ता है |
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