ज्ञानकौ उजागर सहज-सुखसागर,
सुगुन-रतनागर विराग-रस र्भयौ है ।
सरनकी रीति हरै मरनकौ न भै करै,
करनसौंपीठि दे चरन अनुर्सयौ है ॥
धरमकौ मंडन भरम को विहंडन है,
परम नरम ह्व कै करमसौं लर्यो है ।
ऐसौ मुनिराज भुवलोकमैं विराजमान,
निरखि बनारसी नमस्कार कर्यौ है ॥५॥
अन्वयार्थ : जो ज्ञान के प्रकाशक हैं, साहजिक आत्मसुख के समुद्र हैं, सम्यक्त्वादि गुणरत्नों की खान हैं, वैराग्य-रस से परिपूर्ण हैं, किसी का आश्रय नहीं चाहते, मुत्यु से नहीं डरते, इन्द्रिय-विषयों से विरक्त होकर चारित्र पालन करते हैं, जिनसे धर्म की शोभा है, जो मिथ्यात्व का नाश करनेवाले हैं, जो कर्मों के साथ अत्यन्त शान्तिपूर्वक लड़ते हैं; ऐसे साधु महात्मा जो पृथ्वीतलपर शोभायमान हैं उनके दर्शन करके पंडित बनारसीदासजी नमस्कार करते हैं ॥५॥
उजागर=प्रकाशक; रतनागर =मणियों की खान, समुद्र। भें =डर; करन =इन्द्रिय; चरन =चारित्र; विहंडन=विनाश करनेवाला; नरम=कोमल अर्थात् निष्कषाय; भुव =पृथ्वी