भेदविज्ञान जग्यौ जिन्हके घट,
सीतल चित भयौ जिम चंदन ।
केलि करै सिव मारगमैं,
जग माहिंजिनेसुरके लघु नंद ॥
सत्यसरूप सदा जिन्हकै,
प्रगटयौ अवदात मिथ्यातनिकंदन ।
सांतदसा तिन्हकी पहिचानि,
करैकर जोरि बनारसि वंदन ॥६॥
अन्वयार्थ : जिनके हृदय में निज-पर का विवेक प्रगट हुआ है, जिनका चित्त चन्दन के समान शीतल है , जो निज-पर विवेक होने से मोक्षमार्ग में मौज करते हैं, जो संसार में अरहंतदेव के लघु-पत्र हैं , जिन्हें मिथ्यादर्शन को नष्ट करनेवाला निर्मल सम्यग्दर्शन प्रकट हुआ है; उन सम्यग्हृष्टि जीवों की आनंदमय अवस्था का निश्चय करके पं ० बनारसीदासजी हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं ॥६॥
भेदविज्ञान=निज और पर का विवेक; केलि=मौज, खेल; लघुनंदन=छोटे पुत्र; अवदात=स्वच्छ; मिथ्यात-निकंदन=मिथ्यात्व को नष्ट-करनेवाला