(सवैया एकत्रीसा)
स्वारथके साचे परमारथके साचे चित,
साचे साचे बैन कहैं साचेजैनमती हैं ।
काहूके विरुद्धि नाहि परजाय-बुद्धि नाहि,
आतमगवेषी न गृहस्थ हैं न जती हैं ॥
सिद्धि रिद्धि वृद्धि दीसे घटमैं प्रगट सदा,
अंतरकी लच्छिसौं अजाची लच्छपती हैं ।
दास भगवन्तके उदास रहैं जगतसौं,
सुखियासदैव ऐसे जीव समकिती हैं ॥७॥
अन्वयार्थ : जिन्हें निज आत्मा का सच्चा ज्ञान है और मोक्ष पदार्थ से सच्चा प्रेम है, जो हृदय के सच्चे हैं और सत्य वचन बोलते हैं तथा सच्चे जैनी हैं, किसी से भी जिनका विरोध नहीं है, शरीर में जिनको अहंबुद्धि नहीं है, आत्म-स्वरूप के खोजक हैं, न अणुव्रती हैं न महाव्रती हैं, जिन्हें सदैव अपने ही हृदय में आत्महित की सिद्धि, आत्मशक्ति की रिद्धि और आत्मगुणों की वृद्धि प्रगट दिखती है, जो अंतरंग-लक्ष्मी से अजाची लक्षपति (सम्पन्न) हैं, जो जिनराज के सेवक हैं, संसार से उदासीन रहते हैं, जो आत्मीय-सुख से सदा आनन्दरूप रहते हैं; ऐसे गुणों के धारक सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं ॥७॥
स्वारथ (स्वार्थ स्व=आत्मा+अर्थ=पदार्थ)=आत्मपदार्थ; परमारथ (परमार्थ)=परम अर्थ, मोक्ष; परजाय (पर्याय)=शरीर; लच्छि=लक्ष्मी; अजाची=अयाचक,नहीं माँगनेवाले