(सवैया एकत्रीसा)
जाकै घट प्रगट विवेक गणधरकौसौ,
हिरदै हरखि महामोहकौं हरतु है ।
साचौ सुख मानै निजमहिमा अडौल जाने,
आपुहीमैं आपनौ सुभाउ ले धरतु हैं ॥
जैसैं जल-कर्दम कतकफल भिन्न करै,
तैसैं जीव अजीवविलछनु करतु है ।
आतम सकति साधै ज्ञानकौ उदौ आराधै,
सोईसमकिती भवसागर तरतु है ॥८॥
अन्वयार्थ : जिसके हृदय में गणधर जैसा निज-पर का विवेक प्रगट हुआ है, जो आत्मानुभव से आनन्दित होकर मिथ्यात्व को नष्ट करता है, जो सच्चे स्वाधीन-सुख को सुख मानता है, जो अपने ज्ञानादि गुणों का अविचल श्रद्धान करता है, जो अपने सम्यग्दर्शनादि स्वभाव को आपही में धारण करता है, जो अनादि के मिले हुए जीव और अजीव का पृथक्करण जल-कर्दम से कतकफल के समान करता है, जो आत्मबल बढ़ाने में उद्योग करता है और ज्ञान का प्रकाश करता है; वही सम्यग्दृष्टि संसार-समुद्र से पार होता है ॥८॥
कर्दम=कीचड़; कतकफल=निर्मली; बिलछनु=पृथक्‌-करण; सकति=शक्ति;