+ मिथ्यादृष्टि का लक्षण -
(सवैया एकत्रीसा)
धरम न जानत बखानत भरमरूप,
ठौर ठौर ठानत लराई पच्छपातकी ।
भूल्यो अभिमानमैं न पाउ धरै धरनी में,
हिरदै में करनी विचारैउतपातकी ॥
फिरै डांवाडोलसौ करम के कलोलिनि मैं,
व्है रही अवस्था सु बधूलेकैसे पातकी ।
जाकी छाती ताती कारी कुटिल कुवाती भारी,
ऐसौ ब्रह्मघाती है मिथ्याती महापातकी ॥९॥
अन्वयार्थ : जो वस्तुस्वभाव से अनभिज्ञ है, जिसका कथन मिथ्यात्वमय है और एकान्त का पक्ष लेकर जगह-जगह लड़ाई करता है, अपने मिथ्याज्ञान के अहंकार में भूलकर धरती पर पाँव नहीं टिकाता और चित्त में उपद्रव ही सोचता है, कर्म के झकोरों से संसार में डांवाडोल हुआ फिरता है (विश्राम नहीं पाता) सो ऐसी दशा हो रही है जैसे बघरूड़े में पत्ता उड़ता फिरता है, जो हृदय में (क्रोध से) तप्त रहता है, (लोभ से) मलिन रहता है, (माया से) कुटिल रहता है, (मान से) बड़े कुबोल बोलता है; ऐसा आत्मघाती और महापापी मिथ्यात्वी होता है ॥६॥
धरम (धर्म)=वस्तुस्वभाव; उतपात=उपद्रव