+ कविस्वरूप वर्णन -
((सवैया मत्तगयन्द वर्ण २३))
चेतनरूप अनूप अमूरति, सिद्धसमान सदा पद मेरौ ।१।
मोह महातम आतम अंग, कियौ परसंग महा तम घेरौ ।२।
ज्ञानकला उपजी अब मोहि, कहौं गुन नाटक आगमकेरौ ।
जासु प्रसाद सधै सिवमारग, वेगि मिटै भववासबसेरौ ॥११॥
अन्वयार्थ : मेरा स्वरूप सदैव चैतन्य-स्वरूप उपमा-रहित और निराकार सिद्ध-सदृश है। परन्तु मोह के महा-अन्धकार का संग करने से अन्धा बन रहा था। अब मुझे ज्ञान की ज्योति प्रगट हुई है इसलिये नाटक समयसार ग्रन्थ को कहता हूँ, जिसके प्रसाद से मोक्षमार्ग की सिद्धि होती है और जल्दी संसार का निवास (जन्म-मरण) छूट जाता है ॥११॥
अमूरति (अमूर्ति)=निराकार । परसंग (प्रसंग )=सम्बन्ध