जैसैं कोऊ मूरख महा समुद्र तिरिवेकौं,
भुजानिसौं उद्यतभयौ है तजि नावरौ ।
जैसैं गिरि ऊपर विरखफल तोरिवेकौं,
बावनु पुरुषकोऊ उमगै उतावरौ ।
जैसैं जलकुंडमैं निरखि ससि-प्रतिबिम्ब,
ताके गहिबेकौं कर नीचौ करै टाबरौ ।
तैसैं मैं अलपबुद्धि नाटक आरंभ कीनौ,
गुनी मोहिहसैंगे कहैंगे कोऊ बावरौ ॥१२॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार कोई मूर्ख अपने बाहुबल से बड़ा भारी समुद्र तैरने का प्रयत्न करे, अथवा कोई बौना मनुष्य पहाड़ के वृक्ष में लगे हुए फल को तोड़ने के लिये जल्दी से उछले, जिस प्रकार कोई बालक पानी में पड़े हुए चन्द्रबिम्ब को हाथ से पकड़ता है, उसी प्रकार मुझ मन्दबुद्धि ने नाटक समयसार प्रारम्भ किया है, विद्वान लोग हँसी करेंगे और कहेंगे कि कोई पागल होगा ॥१२॥
विरख =पेड़; बावनु =बहुत छोटे कद का मनुष्य; टाबरो=बालक; बाबरो=पागल