+ भगवान की भक्तिसे हमें बुद्धिबल प्राप्त -
(सवैया एकत्रीसा)
कबहू सुमति व्है कुमतिकौ विनास करै,
कबहू विमल जोति अंतर जगति है ।
कबहू दया व्है चित्त करत दयालरूप,
कबहू सुलालसा व्है लोचन लगति है ॥
कबहू आरती व्है कै प्रभु सनमुख आवै,
कबहू सुभारती व्है बाहरि बगति है ।
धरै दसा जैसी तब करै रीति तैसी ऐसी,
हिरदै हमारै भगवंतकी भगति है ॥१४॥
अन्वयार्थ : हमारे हृदय में भगवान की ऐसी भक्ति है जो कभी तो सुबुद्धि-रूप होकर कुबुद्धि को हटाती है, कभी निर्मल ज्योति होकर ह॒दय में प्रकाश डालती है, कभी दयालु होकर चित्त को दयालु बनाती है, कभी अनुभव की पिपासारूप होकर नेत्रों को थिर करती है, कभी आरतीरूप होकर प्रभु के सन्मुख आती है, कभी सुन्दर वचनों में स्तोत्र बोलती है, जब जैसी अवस्था होती है तब तैसी क्रिया करती है ॥१४॥
सुभारती=सुन्दर वाणी; लालसा=अभिलाषा; लोचन=नेत्र